संदल

तुम नग्न हो ।

फ़िर भी
तुम्हें देखकर
आज सवेरे
ऐसा प्रतीत हुआ
जैसे साधु के वेष
के रंगों को
जो वो बूढ़ा छोड़ गया
तुम सबके समक्ष
तो तुमने इस बात
की आलोचना की।

पता लग गया
तुम्हारी सभा को
की वो बूढ़ा
भी धोखे की
मार दे रहा था
तुम्हारे अंगो पर।

***
तुम्हारी पपड़ी जैसी ख़ाल
जग ज़ाहिर कर रही है
की तुम्हें
अब लज्जित करने
वाला प्रचंड वन जीवन
बचा ही नहीं।

नंगी ख़ाल
इस वस्त्रालय में
कही ना कही,
कभी ना कभी
हीनता के भाव
को दर्शाएगी।

यह सत्य है।

पर अनूठा रूप
सलोना ना कहलाए
ऐसा नियम कानून
कभी था ही नही
हमारे दर्मिया।

अब संदल
की रंगत है
तुम्हारे पास।
वनस्पतियों की सज्जा
से ख़ुद को ढाकना
तुम्हारा दायित्व
अब नहीं रहा।

***

कहने दो
उन सब को
की तुम्हारा इलाका,
देखते ही देखते,
कुरूपता का
प्रतिबिंब
बन गया;
चुकी तुम्हारी मीनारों जैसी
ऊंचाई
मुझे अब और ज़्यादा
मोहित करती हैं।
अब सूरज इतनी बार
नयन खोलता बंद करता है
की
एक शिशु के खेल
जैसा माहौल
बन जाता है।

***

तुम सब ऐसे ही रहो।

बाकी
रूप

रंग

मौसम

खुद अपनी ओर से
बात आगे बढ़ाएंगे।


***

संदल- एक कविता जो कि अप्रैल और मई में सूखे पेड़ों के जंगलों को देख पहुंची इस कवि की कलम तक।

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